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नदी घाटी संस्कृतियाँ – River Valley Culture

नदी घाटी संस्कृतियाँ – River Valley Culture

एक परिचयनर्मदा नदी घाटी संस्कृतियाँNARMADA RIVER VALLEY CULTURES

डोगरा आवास-DograHouse

एक परिचयनर्मदा नदी घाटी संस्कृतियाँ

मध्य भारत की नर्मदा नदी भारतीय उपमहाद्वीप की पाँच सर्वाधिक बड़ी नदियों में से एक है। किसी मायने में यह नदी उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक पारंपरिक सीमा रेखा के रूप में भी रही है और पश्चिम की ओर खंबात की खाड़ी जो गुजरात के भरूज शहर से 30 किलोमीटर पश्चिम में गिरने से पूर्व लगभग 1.312 कि.मी. (815.2 मील) का सफर तय करती है। यह भारत की उन तीन प्रमुख नदियों में से एक है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है, अन्य दो नदियाँ ताप्ती और माही नदी हैं। यह सतपुड़ा और विध्याचल पर्वत श्रृंखला के बीच, रिफ्ट वैली (तपजि अंससमल) के समान संरचना में बहने वाली अकेली नदी है तथापि दो अन्य नदियाँ ताप्ती और माही भी अन्य पर्वत श्रृंखलाओं के बीच स्थित ही बहती हैं। यह नदी मध्य प्रदेश में 1077 किलोमीटर, महाराष्ट्र में 74 किलो मीटर दोनों के बीच स्थित सीमा के अंदर और मध्य प्रदेश और गुजरात की सीमा में 39 किलोमीटर तथा गुजरात के भीतर 161 किलो मीटर की दूरी बहते हुए तय करती है।

नर्मदा नदी का उद्गम स्थल लगभग दलदलीय जमीन रहा है जो अब सूख चुका है और अब इसका उद्गम मात्र एक छोटे से नर्मदा कुंड में माना जाता है जो अमरकंटक में मैकल पर्वतों के बीच स्थित है। इसीलिए मैकल पर्वतों को अमरकंटक पर्वत भी बोलते हैं। अमरकंटक 3467.8 फीट (ऊँचाई) जो मध्य प्रदेश के पूर्व में स्थित जिले अनूपपुर में है। यहाँ इस तरह के प्रत्येक स्थान जो लगभग सभी घने जंगलों के भीतर स्थित हैं, के कोई न कोई स्थानीय नाम, उनसे जुड़ी अनेक कहानियाँ तथा वहाँ के लोगों के व्यक्तित्व के बारे में असंख्य कहानियाँ, लोगों की याददाश्त में जिंदा है जिनसे इस नदी के अनेक पुरा-संबंधों का भी पता लगता है।

मैकल पर्वतों से नर्मदा एकाएक कपिल धारा में बहुत गहरे गिरती है और फिर वहाँ से दुर्गम पहाड़ों के बीच चट्टानों और उनसे बने द्वीपों को पारकर सर्पाकार राम नगर के भग्नावेशों के बाजू से बहते हुए गुजरती है। राम नगर और मंडला के बीच 25 किलो मीटर दक्षिण पूर्व दिशा की ओर के फासले को यह नदी बहुत गहरे बहकर आसानी से तय करती हैं क्योंकि यहाँ चट्टानें कम हैं।

नर्मदा नदी की अनेक सहायक नदियाँ और नाले हैं। किन्तु उनमें से सात नदियाँ मिलकर नर्मदा जी का मानों एक परिवार ही रचती हों जिसमें प्रत्येक का अपना पर्यावरण नाम और कहानियाँ हैं। जिनसे नर्मदा के अन्य नदियों के साथ अंतसंबंधों के बारे में भी पता लगता है।

बंजर नदी उसमें बाएं से आकर जुड़ती है और फिर नर्मदा उत्तर-पूर्वी दिशा में एक सँकरे फंदे की शक्ल में जबलपुर की तरफ बहती है। इस शहर के पास लगभग 9 मीटर के एक जलप्रपात, धुँआधार के जलीय धुंध रचने के बाद यह एक गहरी नहर की शक्ल में मैग्नीशियम, संगमरमर और बसाल्ट चट्टानें जो संगमरमर के नाम से भी जानी जाती है, के बीचोंबीच बहती है। उसकी इस जगह की चौड़ाई कई स्थानों पर 90 मीटर है तो अन्यत्र 18 मीटर से भी कम हो गई हैं इस बिंदु के बाद और खंबात खाड़ी के बीच भूमि पर नर्मदा विध्याचल (उत्तर) तथा सतपुड़ा (दक्षिण) के बीच तीन सँकरी घाटियाँ बनाते हुए बहती है जो प्रत्येक भिन्न सांस्कृतिक अंचल के रूप में भी मनुष्य के साथ परस्पर क्रियात्मक प्रक्रिया में नदी विशिष्ट रूपांकनों के रूप में उभरे हैं।

यह प्रदर्शनी, जो कि नर्मदा पर एक पूरी श्रृंखला का अंग है, का संदर्भ नर्मदा नदी स्थित पहली घाटी जो उदगम स्थल के बाद स्थित है, में निहित है।

इसमें प्रदर्शित मुख्यतः मिट्टी के उभारे हुए तथा लोक कथाओं पर आधारित कलारूपांकन अपनी संपन्नता के किसी न किसी चरण पर दर्शित होंगे। इन्हें आदिवासी कलाकारों ने कला और कहानियाँ सुनाने संबंधी कार्यशालाओं के दौरान अपने इलाके में रचा है अथवा इस प्रदर्शनी स्थल पर आकर रचा है। इनमें से कुछ कार्यशालाएं आगे ओर भी नए प्रादर्शों की दिशा में अभी जारी हैं।

प्रदर्शित कलारूपों के रचयिता हस्ताक्षरों का उल्लेख एक अलग से लगाए गए एक विशिष्ट पैनल में उपस्थित है। श्री भज्जू सिंह श्याम आमंत्रित क्यूरेटर (कार्यशाला) रहे। 

नरबदा माई

एक आदिवासी कहानी

नर्मदा नदी के क्षेत्र में निवास करने वाले आदिवासी कलाकार जहां भिन्न कला वस्तुएं अपनी परंपराओं के अंतर्गत गढ़ते हैं वहीं उनमें लोक कथाओं व लोक गायन की भी परंपराएं मौजूद हैं। अमरकंटक में दिसंबर, 2007 में आयोजित कलाकार शिविर में एक महिला कलाकार द्वारा नर्मदा की उत्पत्ति के संबंध में कही गई कथा यहां सामयिक है।

“एक समय पतालपुर, जलहलपुर में पानी ही पानी था वहीं पर बाबा परमेश्वर रहते थे। उन्होंने अपने शरीर के मैल से रेवा नायक, रेवा नायकिन, गेंदा नायक, गेंदा नायकिन, हीरा नायक एवं हीरा नायकिन नाम के लमानी तथा नौ लाख बैलों को बनाया और उनमें जीव डाल दिया। पैदा होते ही इन लोगों ने सोचा कि हम लोग क्या हैं, यहाँ से कहाँ जाएं और क्या करें? तब बाबा परमेश्वर ने उनसे कहा कि तुम लोग बंजारे हो और मृत्यु लोक जाओ और जंगल, गाँव-गाँव, नगर-नगर घूम-घूम कर जीवनयापन करो। तब ये बंजारे अपने बैलों के साथ पाताल लोक से हबदा नगर आये और आसपास के जंगलों से हर्रा बहेड़ा एकत्र करने लगे। ऐसा करते-करते उन्हें बहुत समय हो गया। फिर वे अपने बैल गाड़ी एवं हर्रा बहेड़ा को लादकर आगे बढे और तरछिला नामक स्थान में आकर अपना डेरा डाल दिया। यहीं पर नर्मदा मैया ने रेवा नायक को सपना दिया कि मैं तुम्हारे संग आयी हूं मैं और मेरा नाम बूढ़ी माई है, तब सब बंजारों ने तरछिला में बूढ़ी माई की पूजा अर्चना की। फिर वे सभी तरछुला से प्रस्थान कर बंजारी नामक जगह आए जहां पर बूढ़ी माई, मरही बंजारी के नाम से प्रसिद्ध हुई।”

यहां पर भी आसपास के जंगलों में तथा कुपिया वन में हर्रा बहेड़ा चार चिरोंजी, कुस्सी, खमार एकत्रित कर अपना जीवनयापन कर रहे थे। वहां पहुंचने पर बाबा परमेश्वर ने बूढ़ी माई से कहा कि बेटी तुम बसोगी, तो बूढ़ी माई ने कहा आप जहां कहेंगे वहीं पर रहूंगी। तब बाबा परमेश्वर ने कहा कि जहां पर गुराइन माई को अमर कहानी सुनाई थी, वहीं पर जाकर बांस की झींझी में तुम निवास करो। तब बूढ़ी माई अमर कहानी सुनाई जाने वाली जगह ‘अमरकंटक में बांस के झींझी में निवास करने लगी।

“रेवा नायक, हीरा नायक, गेंदा नायक सभी जंगलों से फल-फूल, पत्ते इकटठे करने में इतने लीन हो गये कि उन्हें माता का ध्यान ही नहीं रहा। तब माता कुपित हो गयीं और कहा कि अब यहां पानी नहीं मिलेगा। बैल प्यास से तड़पने लगे। उसी रात बंजारों के मुखिया रेवा नायक को स्वप्न आया बूढ़ी माई ने कहा कि जहां पर तुम लोगों का डेरा है वहीं पास में बांस की झींझी है। वहीं पर पानी है जाओ निकाल के बैलों को पिलाओ तो सारे बंजारे स्वप्न की बात को जांचने के लिए। बांस की झींझी के पास गये तो देखा कि रेवा नायक एवं रेवा नायकिन की बेटी जहिला के साथ ही एक अपूर्व सुंदरी छोटी कन्या बाँस के झींझी के पास खेल रही है और वहीं नीचे कुंड में पानी था। उसके बाद माता जी को उठा के रेवा नायक अपने घर ले लाये और एक छोटी बेटी की तरह पालन-पोषण करने लगे। धीरे-धीरे उसकी महिमा का बखान चारों ओर होने लगा सभी लोग नरबदा मैया के नाम से पुकारने लगे तब नर्मदा मैया ने कहा कि मेरे नाम के आगे रेवा का नाम आना चाहिए। लोग तभी से मैया को रेवा के नाम से भी जानने लगे।”

“एक कलाकार ने बताया कि एक समय बाबा परमेश्वर ने मां नर्मदा को वरदान दिया, कि जा बेटी मृत्युलोक में अमरकंटक नाम की जगह में तुम्हारा विवाह सोनभद्र के साथ होगा। इस तरफ माता नर्मदा और रेवा नायक की बेटी धीरे-धीरे बड़ी होने लगी और सथानी हो गयी तब रेवा नायक को उसके संजोग की चिंता होने लगी तब सब लोग बाबा परमेश्वर के वरदान को याद कर गढ़ कैलाश में गये और जानकारी प्राप्त की। रेवा नायक की बेटी जहिला और नर्मदा दोनों साथ में खेलीं कूदीं साथ-साथ बड़ी हुई। जहिला को खुशी हो रही है कि उसकी बहन नर्मदा का विवाह सोनभद्र के साथ तय हो गया है।”

पल भर के लिए हम कल्पना करें कि बारात आने वाली है, मंडप में नर्मदा जी के शरीर में हल्दी तेल का लेप चढ़ाया जा रहा है और बारात की प्रतीक्षा की जा रही है। तब जहिला कहती है दीदी अभी तक बारात क्यों नहीं आई है। नर्मदा जी भी चितित हो जाती हैं और जहिला से कहती हैं कि जा तो जहिला जरा देख कर आना बारात कहाँ तक आयी है। नर्मदा जी अपने गहने उतार कर जहिला को पहना कर तैयार कर देती हैं। जहिला बारात आने की दिशा में आगे बढ़ती है। सजी-धजी जहिला को देखा और बाराती यह समझ बैठे कि दुल्हन तो यहीं आ रही बारातियों ने बिना पूछे ही जहिला को दुल्हन समझकर बरातीदादर में आमंत्रित कर फेरे लेने की तैयारी शुरू कर दी।

अभी तक न बारात आयी और न ही जहिला। इसी उहापोह में नर्मदा जी बारात की स्थिति जानने के लिए स्वयं निकल पड़ीं और बरातीदादर पहुंचती हैं तो वहां पर जहिला और सोन बहादुर फेरे ले रहे हैं। नर्मदा जी यह देखकर गुस्से से बौखला कर मंडप के सामानों को तिडबिड कर के मंडप में रखी हल्दी को उठा कर तीव्र गति से फेंकती हैं। यही हल्दी कपिल धारा के पास नीचे आकर गिरी जहां आज भी पीली मिट्टी मिलती है जिसे रामरज मिट्टी कहते हैं।”

नर्मदा जी अपमानित एवं क्षुब्ध होकर पश्चिम दिशा की ओर भागना शुरू कर देती हैं। सभी लोग नर्मदा के वेग से डर कर प्रार्थना करने लगे। चक्रतीर्थ पहुंचकर अपने परिवारजनों, हितैषियों को मुड़कर देखती हैं और बिना रूके तीव्र वेग से आगे बढ़ गयीं। राम लक्ष्मण वनवास काल में विचरण कर रहे थे तभी नर्मदाजी के वेग को देखकर प्रार्थना की कि मां र्मदा आप रूक रुकी, राम लक्ष्मण ने स्नान कर बड़ा देव की पूजा की तत्पश्चात् भगवान राम लक्ष्मण के अनुरोध को नम्रता पूर्वक मना कर रामघाट से नर्मदाजी आगे बढ़ गई। आगे दुर्वासा ऋषि ने स्वागत किया एवं येनकेन मनाया कि आप रूक जाओ, आगे मत बड़ो, उन्होंने रोकने का अथक प्रयास किया। यहीं से नर्मदा जी दो धार में बढ़कर बहने लगीं और इसी कारण इस स्थान को दूधधारा के नाम से जाना जाता है।

इसी क्षेत्र में पांच पांडव अज्ञातवास काट रहे थे। उन्होंने देखा कि नर्मदाजी बड़े वेग से प्रवाहित हो रही हैं, वह आगे बढ़तीं हैं तो भीम कुंडी नामक जगह में भीम पहाड़ को रास्ते में खड़ा कर देता है, नर्मदा जी सब को उखाड़ के टुकड़े-टुकड़े कर देती हैं पर भीम स्वयं रास्ते में आकर खड़े हो गए तो पाताल को छेद कर नर्मदा जी अंदर ही अंदर प्रवाहित होने लगीं और आगे चलकर सिवनी नदी को अपने आप में समाहित कर लिया। इस जगह को सिवनी संगम के नाम से जाना जाता है। सिवनी नदी नर्मदा जी की बहन है फिर दोनों बहनें मिलकर दुख बांटती हुई बड़े वेग से बहती हुई गढ़मंडला पहुंचती हैं। जब गढ़मंडला से नर्मदा जी गुजर रही थीं तो सभी राजाओं ने अपने-अपने गढ़ क्षेत्र में नर्मदा जी की पूजा अर्चना की। इसी तरह प्रवाहित होकर नर्मदा जी सागर में जाकर मिल गई।

नर्बदा का सांस्कृतिक व्यक्तित्वः आदिवासी सोच में

नर्बदा जी के संबंध में आस-पास बसे गोंड, प्रधान और बैगा आदिवासी समाजों में अनेक लोक-कहानियाँ प्रचलित हैं जिनसे इस नदी के जन-मानस में रचे-बसे सांस्कृतिक व्यक्तित्व से परिचय मिलता है। इनमें से कुछ कहानियों की ध्वनि रिकार्डिंग एक कलाकार शिविर के दौरान की गई थी। यहाँ प्रस्तुत कुछ लोक कथाएं सर्वाधिक लोकप्रिय पाई गईं और अधिकांश कलाकारों ने अपनी रची हुई कलाकृतियों में कहानियों में से किसी न किसी अंश का थीम के रूप में उपयोग किया है। अभिव्यक्त कथानकों के बीच छुट-पुट, स्वाभाविक भिन्नता के बावजूद एकात्मकता भी सुस्पष्ट है। लगता है मानों नर्बदा जी न केवल जलधाराओं एवं आस्थाओं का प्रवाह है बल्कि संस्कृतियों और लोगों के मन के बीच स्वयं सतत् उपस्थित होते रहते, एक में अनेक, सेतु भी हैं।

नदी का सांस्कृतिक व्यक्तित्व न केवल लोक कथाओं और गीतों द्वारा बल्कि संबंधित संस्कृतियों में प्रचलित कला-रूपों, आचार-विचारों, शिष्टाचार एवं परस्पर व्यवहारों के प्रतिमान विश्वास, रीति-रिवाज, सभी से अभिव्यक्त होता है। नदी घाटी संस्कृतियों पर प्रदर्शनियों के सिलसिले में, सांस्कृतिक पहलुओं के बीच यह पहलू लोगों के लिए भी शायद सबसे अधिक रोचक और महत्वपूर्ण है। दूसरे शब्दों में, यह मनुष्य के व्यवहार और उनके बीच अंतसंबंधों को समझने में भी सहायक है।

An introduction – ON NARMADA RIVER VALLEY CULTURES

The Narmada is a river in central India and the fifth largest river in the Indian subcontinent. It forms the traditional boundary between North India and South India and flows westwards over a length of 1,312 km (815.2 mi) before draining through the Gulf of Cambey (Khambat) into the Arabian Sea, 30 km (18.6 mi) west of Bharuch city of Gujarat. It is one of only three major rivers in peninsular India that runs from east to west (largest west flowing river) along with the Tapti River and the Mahi River. It is the only river in India that flows almost as if in a rift valley, flowing west between the Satpura and Vindhya ranges although the Tapti and Mahi River also flow through rift valleys but between different ranges. It flows through the states of Madhya Pradesh (1,077 km (669.2 mi)), Maharashtra, (74 km (46.0 mi) (35 km (21.7 mi)) border between Madhya Pradesh and Maharashtra and (39 km (24.2 mi) border between Madhya Pradesh and Gujarat and in Gujarat (161 km (100.0 mi))

The source of the Narmada has been a marshy land that is now dry and reduced to a small tank now called Narmada Kund located in Amarkantak on the Maikal Hills also known these days as hill (1,057 m (3,467.8 ft)), in the Anuppur District of eastern Madhya Pradesh. Here each such place, mostly located in depths of thick forests, has more than one local name, many stories and tales of personalities in people’s memory, and numerous ancient connections, feeling.

The Narmada River descends from Maikal range at the Kapildhara falls over a cliff and meanders in the hills flowing through a tortuous course crossing the rocks and islands up to the ruined palace of Ramnagar. Between Ramnagar and Mandla, (25 km (15.5 mi)), further southeast, the course is comparatively straight with deep water devoid of rocky obstacles.

There are many tributaries and streams but ‘Seven’ of tributaries of the river, each having its own natural environment, name and story, often considered part of Narbadaji’s family towards an expression of an entity and together referred as Narmada’s seven sisters also. The Banjar joins from the left. The Narmada River then runs north-east in a narrow loop towards Jabalpur. Close to this city, after a fall of some (9 m (29.5 ft)), called the Dhuandhara, the fall of mist, it flows for (3 km (1.9 mi)), in a deep narrow channel through the magnesium limestone and basalt rocks called the Marble Rocks; from a width of about 90 m (295.3 ft), above, it is compressed in this channel of (18 m (59.1 ft)), only. Beyond this point up to its meeting the Arabian Sea, the Narmada enters three narrow valleys between the Vindhya scarps in the north and the Satpura range in the South.

This exhibit, as part of the series on Narmada, refers to the Adivasi tradition in and around the river valley located at the source territory. Art works displayed, mainly clay-reliefs based on folk stories are all appearing at some stage of their relative execution. They have been created by Adivasi artists in course of art and story-telling workshops organised in their own localities as well as in IGRMS, some continuing towards more exhibits,

The signature credits for these art-works have been shown in a special panel. Shri Bhajju Singh Shyam was the Guest Curator (workshop).

“NARBADA MAI – An Adivasi Story”

Once upon a time in Patalpur – a world embedded deep within the Earth, lived Baba Parmeshwar. One day he created Reva Nayak, Reva Nayakin, Genda Nayak, Genda Nayakin, Hira Nayak, Hira Nayakin and nine lakh oxen from the dirt rubbed from his body. Baba Parmeshwar told them that as they were all nomads or banjaras, they all must roam the jungles with their animals collecting and selling forest produce such as Harra Bahera, Char-Chironji etc.

After that, once the goddess Narmada appeared in Reva Nayak’s dream and said that she is Budhi Mai and that hereafter, she would come daily to play and be with them. Roaming from place to place on the earth for years, finally they reached the land where Baba Parmeshwar sat in meditation. He asked Budhi Mai to make her abode in a bamboo grove at Amarkantak. The others also settled down in the Maikel mountain ranges and were so busy collecting Harra, bahera, Amla, Char etc. in the bountiful forest that they forgot Budhi Mai all together.

It so happened that suddenly all the water bodies in the vicinity went dry and there was not a drop to drink. Thirsty and on the verge of losing all their nine lakh oxen the Nayaks now remembered Budhi Mai in their mind and prayed to her. That night she again appeared in Reva Nayak’s dream and told them of her whereabouts in the nearby bamboo grove. Next morning as they reached the bamboo thicket they saw a small pond full of clear water with which they quenched their thirst. Nearby a beautiful little girl was playing with Jahela, the daughter of Reva.

“From that day the little girl lived with Reva’s family as their own daughter and everyone called her “Narbada Mai”. When Narmada came of age, her marriage was fixed with Sonbhadra, a youthful, male river. On the day of marriage, Jahela feigning anxiety over the delay in the arrival of barat, groom’s party, she borrowed Narmada’s bridal clothes and ornaments and went to look for the arriving barat herself. The groom’s party mistook Jahela for the bride and abandoned the idea of going any further. Amid the sound of marriage connected musical instruments, Jahela and Sonbhadra began the sacred circumbulations around the fire. After Jahela failed to return and after much of waiting ultimately, Narbada Mai soon realized the trick played on her. Outraged she ran down in a terrible fury, kicking about at everything that came in her way and in end of things kicked at sonbhadra and with all her power. She force scatter the place as well as the bride and the groom that went away in different directions. Utterly dejected, she threw the bowl of turmeric paste (which became the yellow ochre clay-Ramraj) and decided never to return to her family. No one including Kapil Muni, Durvasa Rishi, Ram-Sita and the mighty bhim could contain her turbulent force. In anger she proceeded in direction opposite to that of Sonbhadra. Even now her anger gets expressed in numerous whirls that are considered deadly by the people.

As a result of the incidence, Narbada remains unmarried all her life. She is held in tremendous respect by all Adivasis who place her name before her father’s name, thereby, greet each other several times in a day uttering “Narbade-Har”.

THE CULTURAL PERSONALITY OF NARBADA

a window into Adiwasi mind…

Gond, Pardhan and Baiga adivasis living along the river Narmada, near the place of its origin tell numerous folk stories that reflect the cultural personality of the river that seems to be residing in the minds of the people since ages. They all lovingly call it as ‘Narbada Mai’. A few of the stories told by the villagers were recorded in an artist’s camp some time back. Stories presented here were somewhat more popular and formed a basis of the art works created by the adivasi folks who used one or other part of the story as a theme. In narrations and expressions of the people, a natural variety exists that offer more than one basis for underlying frame work of unity. In the end it all gives a feelings that Narbadaji is not just a flowing volume of water. It is also a timeless, continuous flow of faith, an eternal belief and cultural investment into the forces of Nature.

डोगरा आवास: #DograHouse

जम्मू और कश्मीर राज्य अपने मनमोहक भू-दृश्य, वेशभूषा गीत-संगीत और केसर के लिये विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ की वास्तुकला परंपरा में भी कई अद्वितीय विशेषताएँ हैं।  इसके वैभवशाली इतिहास को प्राचीन मंदिरों, मस्जिदों, दुर्गों, महलों और जन-सामान्य के पारंपरिक आवासों में देखा जा सकता है। इस प्रदर्शनी में जम्मू क्षेत्र के लोक समूह ‘डोगरा’ के आवास प्रकार को उसकी सांस्कृतिक विशिष्टता एवं वैभव के साथ प्रस्तुत करने का एक प्रयास किया गया है।

            इस आवास की अपनी कई विशेषताएँ हैं। एक प्रमुख विशेषता यह है कि आम हो या फिर खास निवास के लिए इसी प्रकार के पारंपरिक आवास का निर्माण करते हैं। निर्माण कार्य में उपयोग होनी वाली सामग्री भी लगभग एक सी होती है। आमतौर पर घर मिट्टी के बनाये जाते हैं। इसमें इस्तेमाल होने वाली लकड़ी देवदार वृक्ष की होती है जिसे नदी मार्ग से गाँव तक लाया जाता है।

            हिमालय को प्राचीन संस्कृत साहित्य में देवगिरी के रूप में वर्णित किया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘पहाड़ों का राजा’। कालांतर में देवगिरि को डोगरी और अंततः डोगरा कहा जाने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी में लोकप्रिय धारणा द्वारा प्रतिपादित एक और सादृश्य के अनुसार डोगरा या दुग्गर शब्द द्विग्रत से लिया गया है,जो दो झीलों मानसर और सुरिनसर के बीच जम्मू क्षेत्र की भूमि को इंगित करता है और इस क्षेत्र के निवासियों को डोगरा कहा जाता है। डोगरा एक बहुजातीय समुदाय है। इस क्षेत्र में निवासरत हिंदू, सिख और मुस्लिम समान रूप से डोगरा नाम को साझा करते हैं।

            जम्मू के अखनूर तहसील के सुदूर पहाड़ी क्षेत्र में स्थित गांव पियान से संकलित यह आवास पारंपरिक कलाकारों द्वारा संग्रहालय परिसर में लगभग डेढ़ माह की अवधि में बनाया गया है। आवास निर्माण के लिये लगभग सात से आठ फीट लंबे चौकोर खंबे‘लीना’ और गोलाकार खंबे ‘थम’ का प्रयोग किया जाता है। इन खंभों को एक पंक्ति में छःखंबों की चार समानान्तर पक्तियों में व्यवस्थित किया जाता है। दो खंबों के बीच में लगभग छः  फीट की दूरी रखी जाती है। चौकोर खंबे दोनों पार्श्व तथा पिछली दीवार में व गोलाकार खंबे बरामदे और भीतरी कक्ष में स्थित होते हैं। यह खंभे ऊपरी छोर पर लकड़ी के चौकोर पटिये कंसारी और शीशा के माध्यम से आपस में जुड़कर छत हेतु आधार का निर्माण करते हैं। इन पटियों पर मिट्टी की मोटी परत से छत बनाई जाती है। छत में  पीछे की ओर ढलान होती है जिससे वर्षा के समय पानी का सरलता से निकास हो जाता है। पानी के निकासी हेतु छत के दोनों ओर अंतिम छोर पर लकड़ी की नाली ‘परनाला’लगाया गया है। ‘परनाला’ के माध्यम से पानी दीवारों से दूर गिरता है जिससे दीवारों को संभावित क्षति से बचाया जाता है। ये मिट्टी की छत और दीवार ही इन्हें बर्फबारी के प्रतिकूल मौसम में रक्षा प्रदान करती है। दीवारों,छत और फर्श को गोबर से लीपा जाता है। दीवारों के बाहरी भाग को क्रमशः काले और सफेद रंग से सुसज्जित किया जाता है।

            इस पारंपरिक आवास का प्रवेश घर के आँगन से शुरू होता है। स्थानीय नदी से प्राप्त गोलाकार पत्थरों से आँगन की बाउंड्री बनाई गई है। गोबर से लिपे आँगन से आवास के भीतरी कक्षों रसोई एवं शयन कक्ष में प्रवेश करते हैं। सामान्यतः वर्षा के दिनों को छोड़कर भोजन बनाने हेतु अस्थाई रसोई ऑगन के दायें कोने में बनाई जाती है। आवास के आस-पास सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

Dogra House:

          The state of Jammu and Kashmir is world famous for its enchanting landscape, costumes, music and saffron. The architectural tradition also has many unique characteristics. Its glorious history can be seen in ancient temples, mosques, palaces, as well as in the traditional residences of the common people. In this exhibition, an attempt has been made to present the house type of the folk group ‘Dogra’ of Jammu region with its cultural uniqueness and splendor.

          This accommodation has many features of its own. One of the main features is that both common and the rich people construct similar kind of traditional houses. The materials used in construction work are also almost the same. Usually the houses are made of clay. The wood of deodar tree is used, which is transported through the river up to the village.

          The Himalayas have been described in ancient Sanskrit literature as Devagiri which literally means ‘King of the Hills’. Later on Devgiri came to be known as Dogri and eventually Dogra. According to another analogy propounded by popular belief in the nineteenth century, the word Dogra or Duggar is derived from Dwigrata, which indicates the land of Jammu region between the two lakes Mansar and Surinsar and the inhabitants of this region are called Dogra. Dogra is a multi-caste community. Hindus, Sikhs and Muslims residing in this area share the common name Dogra.

          This house type is brought from village Piyan, situated in the remote hilly area of ​​Akhnoor tehsil of Jammu. It has been built by traditional artists in the museum premises over a period of about one and a half month. For the construction of houses, about seven to eight feet long square pillar ‘Lina’ and circular pillar ‘Tham’ are used. These pillars are arranged in four parallel rows of six pillars each. A distance of about six feet is kept between two pillars. Square pillars are erected in both the side and rear wall and circular pillars are erected in the verandah and inner chamber. These pillars are joined at the upper end by means of square wooden slabs, Kansari and Shisha to form the base for the roof. The roof is made from a thick layer of soil. The roof slopes backwards, which allows water to drain easily during the rainy season. For drainage of water, a wooden drain ‘Parnala’ has been installed on either side of the roof. The water falls away from the walls through the ‘Parnala’ thereby protecting the walls from possible damage. These earthen roofs and walls provide protection to them in the adverse weather of snowfall. The walls, ceiling and floor are smeared with cow dung. The outer part of the walls is painted in black and white respectively.

The entrance to this traditional dwelling starts from the courtyard of the house. The boundary of the courtyard has been made from circular stones obtained from the local river. From the courtyard, one enters in the inner chambers of the house, the kitchen and the bedroom. Usually, except on rainy days, a temporary kitchen for cooking is made in the right corner of the courtyard. Special attention is paid to cleanliness around the house.