चौखट
जिला: उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड
संकलन वर्ष : 2006
चौकट : पर्वतीय जीवन और संस्कृति में सौहार्द का प्रतीक एक पारम्परिक आवास
मनुष्य की मूल आवश्यकता में से एक आवास विकास की आरंभिक अवस्थाओं से आज पर्यन्त मानवीय सूझ-बूझ ज्ञान और कौशल की एक वैविध्यपूर्ण और अनूठी भौतिक अभिव्यक्ति है जो स्थान, काल और पारिस्थितिकी के साथ तालमेल की उसकी विलक्षण क्षमता को व्यक्त करता है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय की हिमालय ग्राम मुक्ताकाश प्रदर्शनी में सुदूर हिमालयी राज्यों से संकलित कर पुर्नस्थापित किये गये आवास प्रकारों के बेजोड़ नमूने इसका उदाहरण हैं। ऑनलाइन प्रदर्शनी श्रंखला की यह कड़ी इन्हीं में से एक चौकट के अवलोकन को समर्पित है। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में आकारीय भिन्नता के अनुसार आवास प्रकारों की एक परम्परा रही है, जिनके विभिन्न नाम भी है।
पहले-पहल यानी शुरूआत में एक मंजिला मकान होते थे जिन्हैं ‘‘पण्डलू‘‘ कहा जाता था। कालान्तर में संभवतः परिवार के विस्तार के साथ दो या तीन मंजिला मकान बनने लगे जिन्हें ’हवेली’ कहा जाता है, फिर ’चौकट’ और ’पचपूरा’ कहलाने वाले क्रमशः चार और पांच मंजिले मकान भी बनने लगे। अब तो आठ मंजिले मकान भी देखे जा सकते हैं। ’चौकट’ का प्रचलन उत्तराखण्ड में यमुना घाटी और उसकी सहायक नदी टौंस के सीमान्त क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रहा है। चौकट की सामान्य लम्बाई तेरह हाथ (यह एक प्रचीन भारतीय माप पद्धति है जिसमें 1 हाथ बराबर 1.5 फीट होता है) और चौड़ाई नौ हाथ होती थी एवं ऊँचाई, मंजिलें जिसे स्थानीय भाषा में पुर कहते थे, के अनुसार होती थी। आवासीय संरचनाओं की नामावली में विविधता भी इस क्षेत्र के वास्तु वैभव की विशे षता है। जैसे चौकट के अतिरिक्त अन्य मकान ‘‘कुड़ू‘‘ कहलाते है, जिन मकानों में कोई ऊपरी मंजिल नहीं होती उनका उपयोग पशुओं को बांधने के लिये तो होता ही है साथ ही उन्हें गांव के बाहर बनाते हैं और ‘‘छानh‘‘ या ‘‘दोबरी‘‘ कहते है।
चौकट की मुख्य विशेषता इसके निर्माण में सामुदायिक सहभागिता है। देवी-देवताओं के चौकट तथा क्षेत्रवासियों की सामूहिक चौकट कभी भी एकाकी रूप से निर्मित नहीं होते बल्कि उसके लिये जंगल से लकड़ी लाने और निर्माण की विभिन्न प्रक्रियाओं को आपसी सहयोग से पूर्ण किया जाता है। चौकट की भव्यता और सुंदरता ही आपसी सौहार्द और भाई चारे का प्रतीक है।
सामान्यतः चौकट में देवदार वृक्ष की लकड़ी और हरी झाई युक्त पत्थर प्रयुक्त होता है जिसकी चुनाई मिट्टी से की जाती है। किन्तु देवताओं की चौकट की चुनाई उड़द दाल को पीसकर बनाई गई लेई से की जाती है और इसमें रिश्तेदार और ग्राम विशेष जहां चौकट बननी है, के लोग ही सहभागी होते हैं। प्रत्येक घर से निश्चित मात्रा में प्रतिदिन पिसी हुई उड़द एकत्रित की जाती है।
वृक्षों की कटाई से हो रहे पर्यावरण क्षरण को देखते हुऐ चौकट का निर्माण अब असंभव हो गया है। इस अर्थ में अब यह एक अमूल्य धरोहर बन गयी है। कोल-किरात जाति से प्रारम्भ हुई चौकट निर्माण की कला आज विलुप्ति की कगार पर है। संग्रहालय द्वारा वर्ष 2006 में ग्राम फर्री, तहसील बड़कोट जिला उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड से संकलित यह आवास प्रादर्श पर्वतीय वास्तुकौशल की कहानी कहता है।
Chokhat
District: Uttarkashi, Uttarakhand
Year of collection: 2006
Chokat: A traditional house as symbol of harmony in hilly life and culture
Right from the early stages of civilization till now habitat is one of the basic necessities of human kind. It is unique and vivid manifestation of human imaginations, knowledge and skill which narrates his/her distinct ability of adaptation with time, space and ecology. Amazing house types collected from remote Himalayan states of India and reinstalled in the “Himalayan village” open air exhibition of Manav Sangrahalaya are the example of the same. There has been a tradition of houses varying in size and names in hilly region of Uttarakhand. This episode of online exhibition is dedicated to one of them called “Chokat”.
In the beginning or at the very early stage there used to be single story houses called “Pundlu”. Later perhaps due to expansion of family, duplex and triplex houses called “Haveli” came in vogue. Then construction of four and five storied house also began which are called “Chokat” and “Panchpura” respectively. Now-a-days eight storied houses can also be seen. Chokat has been in trend in the border area of Yamuna valley and its tributary Tons in Uttarakhand from the ancient period. Usual length of Chokat was 13 Haanth [Ancient Indian measuring system in which one haanth is equal to 1.5 feet) and width was 9 Haanth and the height kept according to the number of stairs. Variation in names of housing structure is also a characteristic of the architectural richness of the area. For example, houses other than Chokat are called “Kudoo” houses which are without upper stairs called “Chhani or Dobari” are used for keeping animals and built outside the village.
A main characteristic of the Chokat is the community involvement in its construction. Chokat for deities and a common for inhabitants of the area are never built alone. Bringing wood from the forest and other process of construction is completed with mutual cooperation. Beauty and glory of Chokat symbolizes harmony and brotherhood.
Wood of Deodar tree and greenish stone are the main construction material of Chokat and stone are joined with mud while for joining of Chokat for deities, with mortar made of paste of urad dal is used and only relatives and people of that particular place participate in the process. Each household provides certain quantity of dal paste every day.
Nowadays lack of timber due to deforestation has made it impossible to construct the Chokat. Hence this has become a precious heritage. Began with Kol-Kirat community the art of constructing Chokat is on the verge of extinction. This house was collected by the museum in the year 2006 from Farri village of Badkot Tahsil in Uttarkashi district of Uttarakhand. It depicts the story of hilly architectural skill.