मिथक वीथी मुक्ताकाश प्रदर्शनी
Mythological Trail open air exhibition
प्रदर्शनी की अवधारणा
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के मूल उद्देश्य में यह बात स्पष्ट है कि यह संग्रहालय लुप्तप्रायः वस्तुओं या परंपराओं का भण्डारण व प्रलेखन ही नहीं करेगा, बल्कि उन्हें पुनर्जीवित करने व पुनः लोगों तक पहुंचाने में एक सक्रिय भूमिका भी निभायेगा। यह भी कि संग्रहालय मानव की जैविक-सांस्कृतिक यात्रा को उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत करने की कोशिश करेगा। इस तरह की सर्वसमावेशी प्रस्तुति मात्र अतीतोन्मुखी न होकर मानव के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जोड़ने वाली होगी ।संग्रहालय की “मिथक वीथी” नामक मुक्ताकाश प्रदर्शनी, जो देश के विभिन्न लोक तथा जनजातीय मिथकों पर केन्द्रित है, इसी संदर्भ में एक सार्थक उपक्रम है।
प्राचीन होने के साथ-साथ मिथक प्रत्येक संस्कृति में आये उतार-चढ़ाव, बदलाव तथा उसकी जीवन दृष्टि की अनुगूंजों को अपने में बीज रूप में संजोये रहते हैं और इसीलिये किसी भी संस्कृति को समझने के लिये उसके मिथकों को जानना व समझना आवश्यक है । भारतीय संस्कृति में निहित बहुलता की चर्चा तो बहुत होती है, लेकिन बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि इस देश में अनेकानेक जनजातियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक के अपने विलक्षण सृष्टि मिथक और जीवन दृष्टियाँ हैं। यहाँ प्रदर्शित ज़्यादातर मिथक, वाचिक परंपरा का ही अंग हैं और इसलिये भी हमें इनके बारे में बहुत कम जानकारी है।
इस प्रदर्शनी में कई जनजातीय तथा लोक कलाकारों ने अपने मिथकों, मान्यताओं, अनुष्ठानों को अपने-अपने माध्यम व विशिष्ट पारम्परिक शैली में मूर्त रूप दिया है। इनमें से कुछ तो मिथकों का निरुपण करते आये हैं, किन्तु कई ऐसे भी हैं जिन्होंने पहली बार ऐसा किया है। यह प्रदर्शनी एक ओर उन लोगों को, जिनकी ये कथाएँ है, स्वयं उनके मिथकीय संसार से एक नये सिरे से जोड़ने का प्रयास है तथा दूसरी ओर बृहत्तर समाज और इन तमाम समाजों के बीच सेतु निर्माण करने का उपक्रम है। इसके साथ-साथ यह प्रदर्शनी देश के आदिवासी समाजों की समृद्ध भिषेक परम्परा और लोक अन्तर्दृष्टियों को देखने समझने तथा उनके साथ संवाद कायम करने का अवसर भी प्रदान करती है।
प्रदर्शनी का विषय
प्रदर्शनी एक अनुक्रम का पालन नहीं करती है क्योंकि यह कलाकार द्वारा बनाए गए प्रत्येक नए स्थान के साथ विकसित हुई है, हालांकि प्रदर्शनों को व्यापक रूप से सृजन, पल्लवन संहार की श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। अब तक, प्रदर्शनी ने आदिवासी मिथकों, रीति-रिवाजों और मान्यताओं से संबंधित चालीस ऐसे स्थान बनाए हैं। विभिन्न प्रदर्श जैसे गौंड सृष्टि मिथक, कुम्हार का आवा, देव स्थान, लोकदेवता, पाबूजी कथा, गणगौर की कथा व अनुष्ठान, ग्राम देव का स्थान, बाबसी तुबराज का स्थान, राजा सैलेश की कथा एवं स्थान, नाग स्थान, गंगा दुर्गा युद्ध की कथा, पटुआ चित्रकारों द्वारा गायी जाने वाली सृष्टि कथा, पटुआ चित्रकला की जन्म कथा, काम्बली नृत्य की कथा, सर्पदेवी मनसा का स्थान व कथा, सावरा सृष्टि मिथक, संथाल सृष्टि मिथक, भील मिथक, नर्मदा व जेहाला नदियों की कथा, लंकापुड़ी हनुमान, कामधेनु, बस्तर के कुछ देवी देवता देवी-देवता, मेंढका बिहाव का अनुष्ठान, जिमिदारिन माता का स्थान व अनुष्ठान, डूमादेव की कथा, जलमाता की कथा, कुँदेव देव की कथा व अनुष्ठान, दंतेस्वरी- माता की कथा, लोहार सृष्टि मिथक, वृन्दावती की कथा, जैतिर देव की कथा, धर्मागचरित्रम्, तपोई की कथा, अगरिया सृष्टि मिथक, करमसेनी देवी की कथा व अनुष्ठान, कुम्भ कला की उत्पत्ति कथा, गुग्गा पीर की कथा एवं अनुष्ठान, आओनागा उत्पत्ति कथा, बनबीबीर थान: बनबीबी देवी का स्थान, मेक्किकट्टू :भूता मूर्तियों का स्थान आदि हैं।
प्रदर्शनी का विकास
प्रदर्शनी की अवधारणा तत्कालीन निदेशक डॉ के के चक्रवर्ती की सोच थी। श्रीमती शंपा शाह के साथ हुई उनकी चर्चा के आधार पर उन्होंने यह सुझाया कि क्यों न संग्रहालय में एक समूची प्रदर्शनी इन आदिवासी तथा लोक मिथकों पर केंद्रित हो, जो दुनिया को देखने, समझने की अन्यान्य दृष्टि उपलब्ध कराती हो। श्रीमती शंपा शाह 1992 से संग्रहालय में कार्यरत थीं। संग्रहालय से जुड़ने के बाद अनेकानेक प्रसंगों पर कलाकारों, विभिन्न आदिवासी तथा लोक समुदायों के लोगों से संवाद करने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके लिए यह एक नई और अनूठी दुनिया का खुलना था। संग्रहालय के लिये प्रलेखन के दौरान ऐसे गीतों, ऐसे मिथकों, अनुष्ठानों और इस सबसे ऊपर ऐसे लोगों से उनका परिचय हुआ, जो इस दुनिया को देखने-समझने की विशिष्ट दृष्टि रखते हैं। उन्हें लगता था कि ये जीवन दृष्टियाँ स्वयं में सरल या अबोध मन की उपज न होकर जटिल अवधारणाओं की किफायती और घनीभूत अभिव्यक्ति हैं।
प्रदर्शनी की अवधारणा के दौरान यह महसूस किया गया था कि मात्र लिखित प्रलेखन किताबों में कैद होकर रह जाता है और समाज के साथ वैसा जीवन्त संबंध नहीं बनाता, जैसा कि संग्रहालय अपने मूल उद्देश्य में बनाना चाहता है।
विकास की प्रक्रिया
यह एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण और लगभग असंभव-सा काम था। कथाओं को सुनना और लिख लेना एक बात है और उस पर आधारित प्रदर्शनी तैयार करना बिल्कुल दूसरी बात है और तिस पर इस विषय पर आधारित कोई प्रदर्शनी हमारे देश में नहीं है। आशा की धुँधली किरण केवल इस बात में थी कि जिन लोगों से यह कथाएँ सुनी थीं, वे प्रायः कलाकार थे और उन्होंने भले ही इन कथाओं को पहले निरुपित न किया हो पर वे कलाकार होने के नाते खुद को रूपाकारों में अभिव्यक्त करना जानते थे।
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मनव संग्रहालय द्वारा 2004 में प्रकाशित अनुगुंज नामक एक कैटलॉग में श्रीमती शम्पा शाह ने प्रदर्शनी की विकास प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया है । अनुगुंज, मिथकों और लोक मान्यताओं पर आधारित एक घुमन्तु प्रदर्शनी है। यह स्थायी प्रदर्शनी मिथक वीथी का एक घटक है। इसमें मुख्य रूप से स्थायी प्रदर्शनी में प्रदर्शित प्रादर्श की तस्वीरें शामिल हैं।
इस प्रदर्शनी के लिए सबसे पहला काम श्री पनकू राम अगरिया तथा उनके बेटे श्री रामजी राम अगरिया ने किया। वे दोनों संग्रहालय पहुंचे और बोले “बताइये कहाँ काम करना है, ताकि हम अपनी धौंकनी-चौंकनी जमायें, काम शुरू करें।” मैंने कहा, “इतनी जल्दी क्या है, पहले थोड़ा सुस्ताइये, फिर अगरिया लोगों की कहानी. सुनाइये और तब काम की सोचेंगे।” कहानी सुनाने के नाम से ही वे त्रस्त दिखाई दिये। पनकू रामजी, जिनकी उम्र 60 वर्ष से कम नहीं होगी, बोले, “कहानी बूढे सयाने लोगों को आती है, हमें नहीं आती!” मैंने उन्हें याद दिलाया कि अभी एक माह पहले तो उन्होंने संसार की उत्पत्ति, अगरिया लोगों की उत्पत्ति की कहानी सुनाई थी, वे बोले, “सुनाई होगी, पर अब याद नहीं।” मुझे समझ में आ गया कि आज बात बनना असंभव है, कलाकार का मन है, नहीं इच्छा हुई तो कोई जोर जबरदस्ती नहीं चलेगी। अगले दिन चाय पीते हुए रामजी राम ने अपने आप ही कहानी सुनानी शुरू कर दी। कहानी समाप्त होने पर जब मैंने उनसे कहा कि इस बार यही कहानी लोहे में बनानी है तो वे बोले “इतनी बड़ी कहानी जिसका ओर न छोर उसे बनाने में तो पूरी जिन्दगी लग जायेगी।” मैंने कहा “तो ऐसा ही सही, लेकिन बनाना तो यही है।” बाप-बेटे दिन भर सोच में पड़े रहे, रामजी राम के अनुसार तो वे रात में भी नहीं सो पाये। अगले दिन रामजी राम ने कहा, “बहुत सा लोहा लगेगा, क्योंकि पूरी सृष्टि बनानी पड़ेगी।” इस तरह लगभग एक माह की रात-दिन की मेहनत के बाद पहला प्रादर्श तैयार हुआ और वह इतना विलक्षण था और उसे बनाते हुए स्वयं पनकू रामजी तथा रामजी राम को इतना मजा आया कि उन्हें देख पहली बार मुझे भी लगा कि शायद मिथकों पर आधारित प्रदर्शनी तैयार की जा सकेगी और यह भी कि इस प्रक्रिया में बहुत आनन्द आयेगा।
श्री सहदेव राणा से बस्तर के देवी-देवताओं-डूमादेव, रावदेव आदि की कथा सुनते हुए लेवी स्ट्रास की यह बात याद हो आई कि “अनुष्ठान दर असल दैनिन्दिन जीवन में मिथक का क्रियान्वयन है और इसी तर्क से मिथक एक वैचारिक अनुष्ठान है।” यह बहुत महत्वपूर्ण बात थी और इसने इस प्रदर्शनी के संभावित स्वरूप को लचीला और व्यापक बनाया। इस प्रदर्शनी में ऐसे बहुत से प्रादर्श हैं जो मिथक पर आधारित होने के बजाय अनुष्ठान का हिस्सा हैं, जैसे तुबराज बावसी का स्थान, गामदेव का स्थान, डोकरा देव, जिमिदारिन माता, मेंढका बिहाब पर आधारित मिट्टी के म्यूरल आदि।
किसी भी क्षेत्र में एक ही मिथक के एक से अधिक प्रारूप मिलते हैं, जो कई बार आपस में बहुत भिन्न होते हैं। शोधकर्ताओं द्वारा किताबों में संकलित जो मिथक इत्यादि हैं, प्रायः हमें कलाकारों से उससे भिन्न ही रूप सुनने को मिले। इस प्रदर्शनी में कथाओं का वही प्रारूप लिया गया है, जो कलाकार ने हमें सुनाया और दृश्य रूप में अभिव्यक्त किया। मुक्ताकाश प्रदर्शनी होने के कारण भी बहुत सी कठिनाईयाँ उपस्थित हुई। प्रादर्श का आकार अनिवार्यतः ऐसा होना था, जो खुले आसमान त रखो न जाये और अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके। दूसरी बड़ी दिक्कत प्रादर्शों के रख-रखाव, बारिश और धूप से निरन्तर उन्हें बचाने की थी। तीसरी कठिनाई इन प्रादर्शों को सही तरह से चबूतरा इत्यादि बनाकर प्रदर्शित करने की थी, ताकि उनका स्वरूप और निखरकर दर्शकों के सामने आये और पूरी प्रदर्शनी एकरस होकर न रह जाये। चौथी कठिनाई उपयुक्त माध्यम के चुनाव की थी। उदाहरण के लिए, पटुआ चित्रकार कपड़े या कागज के लम्बे पट पर चित्र बनाते हैं, लेकिन खुले प्रांगण में प्रदर्शित करने के लिए चूँकि ये दोनों ही माध्यम अनुपयुक्त हैं, इसलिए प्रदर्शनी में एक पन्द्रह फीट लम्बे शिलाखण्ड पर पटुआ चित्रकला की उत्पत्ति कथा तथा संथाल उत्पत्ति कथा चित्रित की गई है। इसी प्रकार श्री जनगढ़ सिंह श्याम, जो चित्रकार के रूप में ही मुख्यतः जाने जाते हैं, ने टेराकोटा में त्रि-आयामी आकारों में नर्मदा नदी की कथा को रूपायित करने की इच्छा जाहिर की थी। संग्रहालय और स्वयं मेरे लिये यह अत्यन्त हर्ष की बात है कि उन्होंने यह काम किया। इस प्रक्रिया में जो शिल्प तैयार हुआ, वह शिल्प-विधा में शायद अपने तरह का एक अलग हस्ताक्षर हैं, जिसमें विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखलायें, उस पर रहने वाले जीव वनस्पति जगत, सब मिलकर नर्मदा व जेहाला नदी के उद्गम कुण्ड बनाते हैं। मुक्ताकाश प्रदर्शनी होने का लाभ उठाते हुए यह कोशिश भी की गई कि मिथकों में जिन पेड़-पौधों का जिक्र आया है, उन सभी को यहाँ लगाया जाये। मसलन मनसा स्थान के निकट मनसा नामक पौधा लगाया गया है। गाँडी कथा में आम, कस्सी और सागौन का जिक्र आता है, सावरा कथा में लौकी के तूम्बे का ज़िक्र आता है और ये सभी पेड प्रदर्शनी स्थल में लगाये गये हैं।
प्रदर्शनी का महत्व
इस प्रदर्शनी का महत्व इसके विषय और प्रदर्शन के स्वरुप में है। आदिवासी और लोक मिथकों के विषय पर अब तक देश में अपनी तरह की यह एकमात्र प्रदर्शनी है। मिथक आदिवासी और लोक समुदायों के जीवन और संस्कृति से गहराई से जुड़े हुए हैं। इसलिए किसी संस्कृति को समझने के लिये उसके मिथकों को जानना व समझना आवश्यक है। मिथक वीथी प्रदर्शनी आदिवासी एवं लोक जीवन के आंतरिक सार और स्वदेशी कला रूपों के माध्यम से उनके जीवन दृष्टि को चित्रित करती है। इस प्रदर्शनी में जनजातीय और लोक कलाकारों द्वारा अपने-अपने तरीके से खींचे गए मिथकों, किंवदंतियों और कहानियों को द्वी आयामी और त्रि आयामी रूपों में दर्शाया गया है। इन्हें विभिन्न माध्यमों जैसे मिट्टी, टेराकोटा, पत्थर, पीतल, लकड़ी, लोहा आदि से तैयार किया गया है। विभिन्न कारीगर समूहों के शिल्प, लोक देवताओं की अभिव्यक्ति और पारंपरिक चित्र इस अनूठी प्रदर्शनी का मुख्य आकर्षण हैं।
प्रदर्शनी के विकास में शामिल संसाधन:
परम्परागत प्रदर्शन की अवधारणा को तोड़ते हुए, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय हमेशा संग्रहालय को समुदायों एवं समुदायों को संग्रहालय तक लाने मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। भारत में नए संग्रहालय आंदोलन का समर्थन करने में भी यह सबसे आगे रहा है। यहां समुदाय के लोग वास्तविक क्यूरेटर के रूप में कार्य करते हैं और क्यूरेटर केवल सह-क्यूरेटर हैं।
मिथक वीथी प्रदर्शनी के विकास के लिए आमंत्रित कथाकार स्वयं कलाकार थे और अपने माध्यम को अच्छी तरह जानते थे। इसलिए उनकी कल्पना को कहानी के रूप में चित्रित करना उनके लिए काफी आसान था। संसाधन व्यक्ति श्री प्यारेलाल व्याम और श्री सुखनंदी व्याम मंडला मध्य प्रदेश से गोंड मूल के मिथक के लिए; श्रीमती सारा इब्राहिम और इब्राहिम कसम कुम्हार के मिथक के लिए कच्छ, गुजरात से; देव स्थान के लिए मोलेला राजस्थान से श्री दिनेश कुम्हार और राखा कुम्हार; राजस्थान के मोलेला के श्री दिनेश लाल कुम्हार और राजेंद्र लाल कुम्हार पाबूजी की कहानी के लिए; सिरोही राजस्थान से श्री सखला राम, गणगौर के मिथक और अनुष्ठान के लिए; छोटा उदयपुर, गुजरात के श्री शांतिलाल प्रजापति और रामिलाबेन प्रजापति, ग्रामदेव के मंदिर के लिए; साबरकांता गुजरात के श्री माधभाई जेठाभाई पुंजा और श्री विट्ठल भाई देवजी पुंजा, बावसी तुबराज के मंदिर के लिए; दरभंगा, बिहार से श्री जगदीश पंडित और राजेंद्र कुमार राजा शैलेश के मिथक के लिए; श्री जगदीश पंडित, श्रीमती गिरिजा मोइदे और राजेंद्र कुमार, नागा स्थान के लिए; गंगा दुर्गा संघर्ष के मिथक के लिए मिदनापुर पश्चिम बंगाल से श्रीमती मणिमाला चित्रकार और गुरुपद चित्रकार; पटुआ चित्रकरों द्वारा गयी जाने वाली सृष्टि कथा एवं पटुआ चित्रकला की जन्म कथा कथा के लिए श्रीमती मणिमाला चित्रकार; कांबरी नृत्य की कहानी के लिए महाराष्ट्र से श्रीमती मनाकी बापू वैयदा, श्री बालू लाडक्या धूमदा; पश्चिम बंगाल के श्री कालीपद कुंभकर, बुद्धदेव कुंभकर और बाउल कुंभकर मनसा मिथक के लिए; श्री भद्राचलम और कोरमा राव साओरा मूल मिथक के लिए; श्री दुबई किस्कू और ईश्वर मरांडी झारखंड से संथाल मूल मिथक के लिए; भील मिथक के लिए झाबुआ मध्य प्रदेश से श्री पेमा फत्या; नर्मदा और जेहला नदी के मिथक के लिए श्री जंगगढ़ सिंह श्याम, लंकापुरी हनुमान, कामधेनु के लिए ओडिशा से श्री लोकनाथ राणा; श्री लक्ष्मीनाथ कोरम और रामूजी सोढ़ी बस्तर से बस्तर के देवताओं के लिए; श्री सहदेव राणा मेंधका बिहव के अनुष्ठान के लिए; जिमीदारिणी माता का मंदिर, डोकरदेव और रणदेव का मंदिर, दुमादेव का मिथक, देवी दंतेश्वरी का मिथक के लिए; श्री हरिलाल, श्री नंदलाल, श्री संतोष, श्री पंकुराम और श्री जयलाल लोहार मूल के मिथक के लिए; वृंदावती के मिथक के लिए ओडिशा के श्री दिवाकर मुदुली और श्री सुरेंद्र मुदुली; महाराष्ट्र से श्री मंगेश वालवलकर और श्री दीपक तुमरे जैतिर देव कथा के लिए; आंध्र प्रदेश से धर्मंगचरित्रम के लिए श्री डी. वैकुंठम; ता-पोई की कहानी के लिए श्री प्रहलाद मोहराना; अगरिया मूल मिथक के लिए मध्य प्रदेश से श्री रामजीराम अगरिया और पंकू राम अगरिया; छत्तीसगढ़ की श्री गविन्द्रम झारा, श्री मेम्बर झारा और श्रीमती रविवारी झारा, करमसेनी गेवी की कथा अनुष्ठान के लिए; मणिपुर की नीलमणि देवी कुम्भ कला की उत्पत्ति कथा के लिए; कांगड़ा हिमाचल के श्री प्रेम कुमार धीमान, संजीव राणा, कुशलचंद्र और कृष्णचंद्र, गुग्गा पीर का मिथक के लिए; नागालैंड से श्री चुबा, श्री टिमसू, श्री रोंगसेन, श्री मेरेन, श्री वटी, श्री पुर, श्री मेकेन, आओ नागाओं की उत्पत्ति के लिए; सुंदरबन पश्चिम बंगाल से गौतम मण्डल बनबिबिर थान के लिए; और उडुपी कर्नाटक से श्री कृष्ण गुडियागर, श्री रत्नाकर गुडीगर और श्री सुकुमार गुडीगर मेक्कीकट्टू: भूता मूर्तियों का स्थान के लिए
श्रीमती शंपा शाह ने पूरी प्रदर्शनी को कल्पना करने और बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्री दुलाल चंद्र मन्ना इस प्रदर्शनी के निर्माण की पूरी प्रक्रिया क्षण शामिल रहे हैं तथा प्रलेखन, प्रादर्श की निर्मिति, प्रादर्श वीथी प्रदर्शन आदि में उनकी भूमिका अग्रणी है। संग्रहालय के सभी अनुभागों के निरंतर सहयोग, वरिष्ठ सहकर्मियों के मार्गदर्शन तथा सभी सहकर्मियों के प्रोत्साहन से ही यह प्रदर्शनी आकार ले पाई है।
परिचय
मिथक वीथी आदिवासी तथा लोक मिथकों पर केन्द्रित मुक्ताकाश वीथी
संसार भर में ऐसी कोई जाति या जनजाति नहीं है जिसके अपने मिथक न हो। हर समुदाय के जीवन से जुड़े ऐसे प्रश्न जिनका कोई सीधा सादा जवाब नहीं है, जैसे हम कौन हैं. कहां से आये, क्यों आये, हमारे या जीवन मात्र के होने का क्या अर्थ है, आदि का जवाब अलग-अलग तरह से मिथकों की रचना करके दिया है। मिथक का जन्म मनुष्य की बुद्धि तथा भाषा जितना ही प्राचीन है। प्राचीन होने के साथ-साथ मिथक प्रत्येक संस्कृति में आये उतार-चढ़ाव तथा उसकी जीवन दृष्टि की अनुगूँज को अपने में बीज रूप में संजोये रहता है। इसीलिये किसी भी संस्कृति को समझने के लिये उसके मिथकों को जानना व समझना आवश्यक है।
मिथक वीथी नामक इस मुक्ताकाश प्रदर्शनी में देश के अनेक आदिवासी तथा लोक मिथकों पर आधारित चित्र, मूर्तियाँ आदि प्रदर्शित हैं। ये कथायें क्योंकि भौखिक परंपरा का अंग है इसलिये इनके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है। यहाँ प्रदर्शित कृतियाँ आदिवासी तथा लोक कलाकारों द्वारा उनके अपने मिथकों पर बनाई गई हैं। इन मिथकों को विषय वस्तु के आधार पर सृजन, पल्लवन तथा संहार की कोटि में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्रदर्शनी का फलक इतना विस्तृत है कि इसमें अभी अनेक मिथकों की जुड़ने की संभावना खुली हुई है। अब तक इस प्रदर्शनी में लगभग साठ कलाकारों की भागीदारी से अड़तीस प्रादर्श संकुल तैयार किये जा चुके हैं। यह कृतियाँ मिट्टी, पत्थर, पीतल, टेराकोटा तथा रंगों के इस्तेमाल से बनाई गई हैं।
आदिवासी तथा लोक मिथकों पर केन्द्रित यह अपने तरह की देश में एकमात्र प्रदर्शनी है। भारतीय संस्कृति में निहित बहुलता, दैविध्य, ‘अनेकता में एकता को यह प्रदर्शनी चरितार्थ करती है। इसके साथ यह देश के आदिवासी समाजों की समृद्ध मिथक परंपरा, अनुष्ठान तथा लोक अंतर्दृष्टियों को देखने समझने और उसके साथ संवाद कायम करने का अवसर भी प्रदान करती है।
Concept of the exhibition:
The Indira Gandhi Rashtriya Manav Sangrahalaya (IGRMS: National Museum of Man) was founded with the aim of preserving and documenting the disappearing traditions and life skills as well as with a view to revive as many of them as possible. It aimed at preparing a chronicle of human evolution, but all along not lose sight of the pitfalls that threatened a past-oriented approach Thus with great care it aspired to read the composite path where past present and future shared the stage as it strove to tell the story of man. The open-air exhibition “Mythological Trial” centred on various folk and tribal myths of India is a step true to the initial aspiration of the museum.
Mythology, besides being the ancient cousin of culture, is also the curious chronicler of its highs and lows, its changing perspectives and world view and preserves as all inside as a seed. It follows from here that a basic understanding of the myths is expedient to the desire of knowing a culture Diversity is a much hackneyed term in India and yet how many are aware of the myriad tribes with their multiple world- view and myths cohabiting their country today.
Here the folk and tribal artists from various parts of the country have striven to give form to their myths, beliefs and rituals in their respective medium and styles. Some have tried it before, while some others have dealt with for the first time here. The exhibition attempts first to bring the storytellers themselves in a dialogue with their own myths and belief systems and from there goes on to open these parallel words to the mainstream, as they call it. In the process it provides them the occasion to strike a chord with this treasure trove of hidden knowledge and insight from our folk and tribal heritage.
Content of the Exhibition:
The exhibition does not follow a sequence since it has grown with each new space that the artist created, however the exhibits can be broadly classified in the threefold categories of creation, sustenance and destruction. Till now, the exhibition have created forty such space pertaining to tribal myths, rituals and beliefs. Different exhibits are the Gond origin myth, the potter’s myth, Dev Sthan, the story of Pabuji, the myth and ritual of Gangaur, the shrine of Gramdev, the shrine of bavsi tubraj, the myth of king Sailesh, the naga shrine, the myth of the Ganga Durga clash, the first Patua painter, myth of the genesis of patua painting, the story of Kambri dance, the manasa myth, the saora origin myth, the santhal origin myth, the bhil myth, the myth of river Narmada and jehala, Lankapuri hanuman, the kamdhenu, the deities of Bastar, the ritual of Mendhka Bihav, the shrine of Jimidarini Mata, the shrine of Dokradev and Randev, myth of Dumadev, the myth of goddess Danteshwari, the lohar origin myth, the myth of vrindavati, the myth of jeteer, Dharmangcharitram, the story of Ta-poi, the Aharia origin myth, the ritual of Karmaseni, the myth of the first pot, the myth of Gugga pir, the origin of the Ao nagas, Banabibir than: the shrine of banabibi and Mekkikattu : the bhutta shrine.
Development of the exhibition:
The concept of the exhibition was the brainchild of the then Director Dr K. K. Chakraborty. He had a discussion with Smt. Shampa Shah and the idea of entire exhibition based on the myths came up with the intent to make available an alternative world view to the people. Smt. Shampa Shah was working in the curatorial wing of the museum since 1992. She had a number of occasions to interact with the folk and tribal artists from all over the country. During her interaction she came across a plethora of myths, songs, rituals, belief systems and above all met such individuals who seemed to have a lucid perspective on life. Over the years as the experience has added up, she came to recognise their deceptively simple world-view as the undiluted essence of a set of complex concepts.
During the conceptualization of the exhibition it was felt that unlike most documentation material that is cooped up in files and volumes, it should strive for a live contact with people, thereby adding to the museum ethos.
Process of Development:
It was a challenging job and demanded rigorous efforts at all levels for the development. It is one thing to listen to the stories and record them on paper and quite another to visualize an exhibition around it. And in absence of an exhibition on this theme anywhere else in the country, they also did not have a precedence for reference. The good thing was that our storytellers were artist themselves and knew their medium well.
In a catalogue published by IGRMS in 2004 named Anugunj smt. Shampa Shah has explained the developmental process of the exhibition. Anugunj is a travelling exhibition based on myths and folk beliefs. It is a component of the permanent exhibition mythological trail. It mainly consists of photographs of the exhibits from the permanent exhibition.
“Among the artists, the first to arrive were Shri Pankuram Agariya and his son, Ramjiram. They walked up to me hammer and anvil in hand and inquired. So, tell us where do we have to work We’ll start setting up I said, What’s the hurry, rest a while, tell some stories, we’ll think of work later on. The mention of the story seemed to put off the sixty years old Pankuram. He said, “Oh, we know no stories, its the elders who remember them! I reminded him that it was he who had narrated to me the Agariya’s origin myth Just last month only to hear him retort, its possible, but I have forgotten it now.” I saw no logic working for me that day. The artist was simply not in the mood to tell any stories. However the next day, at tea, Ramjiram began to tell the story on his own. When he finished I told him, this is what they will make in iron this time. “But this story is so long, it will take a lifetime to finish he said
“So be it I said, ‘But you have to make it. The father and son seemed so perplexed and lost that they could not sleep the whole night, as Ramjiram told us later. The next day however he declared. Please arrange for lots of iron since we are to begin making the universe!!
It was then one month in the making. The extent to which the actress enjoyed reading it out day by day and the stupendous mural that stood before us on the last day was the first real indication of what might be in store for us on this mythological trail.
Later listening to the tales of the various duties of Bastar in Sahdev Rana’s mouth. Levi Strauss’s words fleshed in the mind Ritual considered as enacted myth and myth considered as a thought ritual, is submitted to dissection. Keeping this in mind, the nature of the exhibition was kept very open and flexible There are many exhibits like the shrine of Tubraj, Gamdev. Dokradev, Jimidarin Mata Mendhka Bihav etc that are more a part of the ritual than a link in the narrative of a myth.
The myths are part of the oral tradition which is preserved in the constant retelling of these tales. There are usually as many versions of a particular myth as there are storytellers hence the innumerable version often found in the same region. The ones we came across also differ from their counterpart versions recorded by scholars in various books. Those included in the exhibition, however, are as narrated and created by the artist themselves
The open-air display system is specific share of problems. While seeing to it that it does not get lost in the vast expanse, efforts have to be made so that it registers a marked presence. Then comes the problem of maintaining it through the dust, water and heat of the open. The question of the design and display of the exhibits also brings its own troubles along and is something on which the entire look of the exhibition depends. The choice of the medium sometimes poses problems that are peculiar to the nature of the exhibition. For instance, we were faced with one in the context of the Patua painting from West Bengal. By tradition they use a long scroll of cloth to paint the entire narrative but in the said context, cloth as a medium did not agree with the open-air set up at all. Then the idea of using a fifteen feet tall stone ab occurred and the myth of Santhal origin was eventually painted on it. Similarly, when another artist, Jangarh Singh Shyam, otherwise a painter expressed the wish to make the Narmada Jehala myth in terracotta, it was duly respected. I am very happy that he worked on it and went on to create something unique in the natural landscape with the Vindhyachal ranges, and the flora and fauna surrounding it. The open to sky set up has also added to the display in some ways taking advantage of the fact we have hem of complement the myth by facilitating the related trees and vegetation around it viz a Manasa plant near the Manasa shrine, Mango, Kasi and teak near Lillar Kothi, the gourd creeper near the Saora myth etc”.
Importance of the exhibition:
The importance of this exhibition lies in its theme and display pattern. On the theme of tribal and folk myths, so far this is the only exhibition of its kind in the country. Myths are deeply intertwined with life and culture of the tribal and folk communities. So a basic understanding of myths is expedient to the desire of knowing a culture. Mythological Trail exhibition portrays the inner essence of the tribal and folk life and their worldviews through indigenous art forms. In this exhibition myths, legends and stories are depicted in 2D and 3D forms, drawn by the tribal and folk artists in their own way. These are crafted through different media like clay, terracotta, stone, brass, wood, iron, etc. Crafts of various artisan groups, manifestation of folk deities and traditional paintings form the main attraction of this unique exhibition.
Resources involved in exhibition development:
Breaking the concept of conventional museum and display, IGRMS has always been championing the new museum movement in India by taking museum to the communities and bringing communities to the museum. Here community people act as the real curators and curators are merely the co-curators. The storytellers invited for development of mythological trail exhibition were artist themselves and knew their medium well. So depicting their imagination in the form of a story was quite easy for them. Resources persons Shri Pyarelal Vyam and Shri Sukhnandi Vyam from Mandla Madhya Pradesh for the Gond origin myth, Smt. Sara Ibrahim and Ibrahim Kasam from Kuttch, Gujarat for the Potter’s myth; Shri Dinesh Kumhar and Rakha Kumhar from Molela, Rajasthan for Dev Sthan; Shri Dinesh Lal Kumhar and Rajendra Lal Kumhar of Molela, Rajasthan for the story of Pabuji; Shri Sakhla Ram from Sirohi Rajasthan for the myth and ritual of Gangaur; Shri Shantilal Prajapati and Ramilaben Prajapati of Chhota Udaipur, Gujarat for the shrine of Gramdev; Shri Madhabhai Jethabhai Punja and shri Vitthal bhai Devji Punja from Sabarkanta Gujarat for the shrine of bavsi tubraj; Shri Jagdish Pandit from Darbhanga Bihar for the myth of king Sailesh; Shri Jagdish Pandit, Smt. Girija Moide and Rajendra Kumar for the naga shrine; Smt. Manimala Chitrakar and Gurupad chitrakar from Midnapur West Bengal for the myth of the Ganga Durga clash; Smt. Manimala Chitrakar for the first Patua painter, myth of the genesis of patua painting; Smt. Manaki Bapu Vayeda, Shri Balu Ladkya Dhumada from Maharashtra for the story of Kambri dance; Shri Kalipad Kumbhakar, Shri Budhadev Kumbhakar and Shri Baul Kumbhakar of West Bengal for the manasa myth; Shri Bhadrachalam and Korma Rao for the saora origin myth; Shri Dubai Kisku and Iswar Marandi from Jharkhand for the santhal origin myth; Shri Pema Fatya from Jhabua Madhya Pradesh for the bhil myth; Shri Jangarh Singh Shyam for the myth of river Narmada and Jehala; Shri Loknath Rana from Odisha for Lankapuri hanuman and the kamdhenu; Shri Laxminath Koram and Ramuji Sodhi from Bastar for the deities of Bastar; Shri Sahdev Rana for the ritual of Mendhka Bihav, the shrine of Jimidarini Mata, the shrine of Dokradev and Randev, myth of Dumadev, the myth of goddess Danteshwari; Shri Harilal, Nandlal, Santosh, panchuram and Jailal for the lohar origin myth; Shri Divakar Muduli and Shri Surendra Muduli from Odisha for the myth of vrindavati; Shri Mangesh Walvalkar and Shri Deepak Tumbre from Maharashtra for the myth of Jeteer; Shri D. Vaikuntham from Andhra Pradesh for Dharmangcharitram; Shri Prahalad Moharana for the story of Ta-poi; Shri Ramjiram Agaria and Panku Ram Agaria form Madhya Pradesh for the Agaria origin myth; Shri Gavindram Jhara, Shri Member Jhara and smt. Ravivari Jhara of Chhattisgarh for the ritual of Karmaseni; Smt. Neelamani Devi from Manipur for the myth of first pot, Shri Prem Kumar Dhiman, Sanjeev Rana, Kushalchandra and Krishnachandra of kangra Himachal of Gugga pir, Shri Chuba, Shri Timsu, Shri Rongsen, Shri Meren, Shri Wati, Shri Pur, Shri Meken of Nagaland for the origin of the Ao nagas; Banabibir than: the shrine of Goddess Banabibi by Shri Gautam Mandal and Mekkikattu: the shrine of bhutta idols by Shri Krishna Gudigar, Shri Ratnakar Gudigar and Shri Sukumar Gudigar of Karnataka
Smt. Shampa Shah played a key role in curating and visualising the entire exhibition. Shri D. C. Manna has been a part of the process from start to finish and contributed significantly to all aspects of the work. This exhibition has been able to take shape only due to the continuous co-operation of all the sections of the museum, guidance of senior colleagues and the encouragement of all colleagues.
Introduction
Mythological Trail an open air exhibition based on adivasi and folk mythologies
All castes and tribes have myths of their own. The questions like, who we are, whence we come or what the meaning of our existence be, have nagged communities the world over and everywhere they have engaged with these questions by creating stories or myths of their own. Myths are as old as man’s mind or language. Apart from being ancient, myths are also the most valid document of the trajectory of a culture, as much as it is the seed-archive of its people and their world views. It derives from here that understanding the myths of a culture or civilization is a prerequisite to understanding it.
The open-air exhibition Mythological Trait hosts a collection of folk and adivasi myths of India depicted in two and three dimensional forms. These myths are relatively unknown to people at large by virtue of their being part of the oral tradition. They are the myths of these tribes and communities that have been depicted by their own artists and craftsperson. For convenience the myths can be divided on the basis of their theme under the heads of creation, sustenance and destruction. The nature of the exhibition is such that there is scope for further expansion. At present there are thirty eight exhibits on display which about sixty artists have worked on. The materials used have been varied, ranging from clay, stone, brass, terracotta to paint colours.
On the theme of adivasi and folk myths, this is the only exhibition of its kind in the country. In its simple and straight forward manner, it underlines the oft quoted ‘unity in diversity’ of the Indian culture and in addition also provides the rare opportunity to establish link with the rich tradition, mythologies, rituals and insights of the adivasi culture.
- The Gond Origin Myth
- The Potter’s Myth
- Dev Sthan
- The Story of Pabuji
- The Myth and Ritual of Ganguar
- The Shrine of Gamdev- the village deity
- The Shrine of Bavsi Tubraj
- The Myth of King Sailesh
- The Naga Shrine
- The Myth of Ganga-Durga clash
- The First Patua Painter
- Myth of the Genesis of Patua Painter
- The Story of Kambri Dance
- The Manasa Myth
- The Saora Origin Myth
- The Santhal Origin Myth
- Bhil Myth
- The Myth of the River Narmada and Jehala
- Lankapuri Hanuman
- The Kamdhenu
- The Deities of Bastar
- The Ritual of Mendhka Bihav
- The Shrine of Jimidarin Mata
- The Shrine of Dokradev and Ravdev
- The Myth of Dumadev
- The Myth of Jalmata
- The Myth and Ritual of Kunwardev
- The Myth of Goddess Danteshwari
- The Lohar Origin Myth
- The Myth of Vrindawati
- The Myth of Jeteer
- Dharmangcharitram
- The Story of Ta-Poi
- The Agariya Origin Myth
- The Ritual of Karamseni
- The Myth of the First Pot
- The Myth of Gugga Pir
- The Origin of the Ao-Nagas
- Banabibir Than: Shrine of Goddess Banabibi
- Mekkikattu: The Shrine of Bhutta Idols
- Charu and Maati festival (new addition)