जनजाति: जातापु
क्षेत्र: मेटावलसा
जिला: विजय नगरम, आंध्रा प्रदेश
संकलन वर्ष : 2008
पुरिल्लू: आंध्र प्रदेश की जतापू जनजाति का पारंपरिक आवास प्रकार
जतापू जनजाति आंध्र प्रदेश के विजयनगरम जिले के पूर्वी घाटी क्षेत्र के पहाड़ी एवं समतल भूभागों पर निवास करती है| जतापू समुदाय खोंड जनजाति का ही रूप है जो पहाड़ी क्षेत्रों में कोंद एवं समतल में तेलुगु भाषा बोलते हैं | उन्हें खोंड एवं समंथुलू भी कहा जाता है | तेलुगु में समंथुलू का अर्थ जागीदार से होता है | उनकी मातृभाषा “कुवि” है जो द्रविड़ भाषा परिवार से सम्बद्ध है | जतापू समुदाय में शुभ कार्यों हेतु समय निश्चित करने वाला व्यक्ति “दिसारी ” कहलाता है | उसे ‘मुहुर्थागादु’ अथवा ‘चुक्का मुहुर्थागादु’ के नांम से भी जाना जाता है | कोई भी शुभ कार्य जैसे गृह निर्माण, विवाह इत्यादि से पहले शुभ मुहूर्त हेतु उनसे परामर्श लिया जाता है | वह उत्सव मनाने एवं देवी देवताओं के पूजन हेतु भी शुभ दिन एवं शुभ मुहूर्त निश्चित करता हैं |
जतापू भौतिक संस्कृति बहुत ही सम्पन्न है, विशेषतः उनके पारंपरिक आवास प्रकार- छप्पर निर्मित आयताकार आवास पुरिल्लू बहुत रोचक हैं | यह आवास मुख्यतः तीन भागों – मुख्य हॉल मध्य भाग (इन्लिस), अग्र भाग (गद्पा) एवं पश्च भाग रसोईघर (वेंतागडी) से मिलकर बना है | घर का मध्य भाग काफी महत्त्व रखता है क्योंकि इसी में बहुमूल्य वस्तुएं जैसे अनाज, वस्त्र, रुपया, जेवरात इत्यादि संग्रह किया जाता है | मध्य भाग में एक अतिरिक्त स्थान (मचान) भण्डारण इत्यादि के लिए होता है बांस से निर्मित ये स्थान ‘अटूकू’ कहलाता है | मध्य भाग में पारंपरिक अनाज कुटाई हेतु सतह में ओखलीनुमा छिद्र भी तैयार किया जाता है | जतापू समुदाय में आवास का मध्य भाग विशेषतः पारम्परिक अनाज कुटाई का यह स्थान काफी पवित्र माना जाता है और विवाह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है | अधिकतर जतापू परिवार में उनके विवाहित पुत्रों हेतु बगल में अतिरिक्त कमरों के बनवाने का प्रचलन है |
पूरे घर को सुरक्षा प्रदान करने हेतु बागड़ (इलुगु) होती की जाती है निर्माण मुख्यतः मिटटी अथवा मिटटी/पत्थर अथवा मिटटी ईंट की सहायता से किया जाता है | छत का निर्माण बॉस के बने ढाचे एवं स्थानीय सूखी घास (डब्बा गड्डी) जो कि ढांचे के ऊपर फैलाई जाती है, से किया जाता है| दोनों ओर से ढ़ाल देने के लिये दो लम्ब खम्भे बीच में तथा किनारों पर छोटे खम्भे लगाये जाते है| एक मजबूत काष्ठ बीम बीच के दो खम्बो पर क्षैतिज रखी होती है जबकि किनारों वाले खम्बो से मध्यथता करते काष्ठ के कई खम्बे संयोजित किये जाते हैं | निचली एवं ढ़लवां छत होने से ठंडी एवं गर्म हवा अन्दर प्रवेश नहीं कर पाती एवं घास की मोटी परत ठण्ड में गर्मी एवं गर्मी में ठण्डक प्रदान करती है | ये हमेशा अपने घर मुख्य ग्राम से एक या दो किमी दूर जंगल/ जलस्थान अथवा खेतों तथा गावों के बीच स्थापित करते हैं जिससे उन्हें खेती में आसानी होती है | इन आवास प्रकारों का पर्यावरण से गहरा सम्बन्ध होता है जो अन्य समाजों को भी इसके विविध सांस्कृतिक दस्तूरों की वजह से प्रभावित करता है| विजयनगरम जिले के सुलुरु मण्डल में जतापुओं के घर पंक्तिबद्ध हैं| समान्यतः इस क्षेत्र के जनजातीय गाँवों में सजातीय लोग निवास करते है | एक दूसरे के सहयोग से बनाये इन घरों को ये कभी अपनी संपत्ति नहीं समझते | प्रत्येक तीन- चार वर्ष में ये इन घरों की छत एवं घास बदलते हैं | इन्हें अपने घरों के अगले एवं पिछले भाग में बागवानी करने का भी शौक होता है | आगे के भाग में मुख्यतः ये फूलों की प्रजातियाँ जैसे गुलाली, मंडरा, कनाकमबोरम, बंथी इत्यादि रोपते है तो पिछले भाग में फलों जैसे आम, कटहल इत्यादि के साथ कुछ सब्जियां जैसे सफ़ेद एवं जंगली कद्दू लगाना पसंद करते है |
सौन्दर्य की दृष्टि से भी ये अपने घरों को हमेशा साफ-सुथरा रखते हैं | गोबर(एवुपेडा) की लिपाई कर काले एवं लाल रंग की पट्टिकाओं से अपने घरों को सुन्दर रूप प्रदान करते हैं | उन्हें साफ-सफाई का भी अत्यंत ध्यान रहता है इस हेतु ये अपने घरों से 20-25 मीटर दूरी पर गड्डा खोदते है जहाँ प्रतिदिन का कचरा इकठ्ठा कर प्रत्येक छ : महीने अथवा आसपास के समय में इसे डिकंपोज्ड कर खाद तैयार करते हैं | प्राप्त खाद का उपयोग वह अपनी शुष्क अथवा गीली खेती में करते हैं जो उनके द्वारा एक उत्कृष्ट उदहारण है | वे गोशालाओं को या तो घरों के पास या थोड़ी दूरी पर बनाते हैं| उनका चूल्हा दो या तीन भागों में विकसित होता है ताकि एक समय पर कई भोजन तैयार किये जा सकें | जंगल से लाये सुखी लकड़ियों को ये टुकड़ो में काटने के बजाये सीधे ही चूल्हे में लगाना पसंद करते हैं | जतापू घर केवल आराम प्रदान करने के लिए ही नहीं अपितु ये विविध सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भी महत्वपूर्ण भूमिका निभते हैं | वर्ष 2011 के जनगणना के अनुसार इनकी जनसंख्या 1,26,659 है |
Tribe: Jatapu
Area: Vizianagaram, Andhra Pradesh
Purillu: Traditional Jatapu
Year of collection: 2008
Tribal House type of Andhra Pradesh
The Jatapu tribe resides in the hilly terrain and foot hills of the viziangaram district of the Eastern ghats region in Andhra Pradesh. The Jatapu community is a section of the Khonds, who speak kond on the hills and teluges in the plains. They have various synonyms like khond and Samanthulu. In Telegu, samanthulu means feudatories. Their mother tongue is “Kuvi” belonging to the Dravidian family of languages. Among the Jatapus, the person who fixes auspicious times is called the Disari. He is also known as “Muhoorthagadu or Chukka Muhoorthagadu. He is consulted to fix up the time (Muhoorthamis) before undertaking any important work such as construction of houses, marriage alliances etc. He also fixes the time and day for the celebration of festivals and workship of deities.
The Jatapu material culture is very rich, particularly their traditional house type is very interesting i.e. purilllu is a thatched house having rectangular type. The house mainly consists of three portions i.e. main hall, central portion of the house (Inilles) front portion of the house is (Gadapa) back portion of the house is kitchen(Vantagadi). The central portion of the house got prime importance for keeping all valuable things including food grains, cloths, cash, jewellery etc. The central hall also serves as an extras ceiling, for storage keeping facility that is called “Atuku” is completely made of bamboos and also having a provision for pounding hole on the surface of the floor for pounding flour of their traditional food grains. Among the Jatapus the central hall particularly pounding hole (Rotigunta) plays a pivotal role in dealing with marriage fixations winds is a very auspicious spot of the Jatapus. Majority of the Jatapus houses have an extra side hall particularly in the extended families for the purpose of their married son.
The entire house has fencing (Elugu) for the protection of the house. The construction of the the house is generally done with either mud alone or mud and stone or mud and brick or mud and wattle. The roof is covered with a thick bamboo frame and the dried local grass called ‘Dabbagaddi’ is systematically spread on that frame. They erect two long poles in the centre and shorter one in the corner to get sloping on both sides. Another strong wooden beam is horizontally placed over the two central poles (Vennupatti) on the central horizontal beam several wooden poles placed connecting the corner poles. The low roofs also prevent cold waves and heat waves from directly entering the house. the thick grass roof keeps the house warm in winter and cool in summer season. They always build their dwelling one or two kilometers away from the main villages, with either forests or streams or fields inter posed between the main village which help in easy access to podu cultivation in bringing fire wood and collection of roots and tubers etc. The dwelling styles have some relation to the environment and at the sametime different societies may react in different ways in the same situation due to diverse cultural practices. The housing pattern of Jatapu of Saluru mandal in Viziangaram district of the linear type. Generally, the tribal villages in their region are exclusively inhabited by a single tribe, the Jatapus never treated house as a property their house is very simple easy to be built with the cooperation of their relatives. Every three to four years they change their roof and rethatched the grass. Jatapus are very fond of raising horticultural plants both front and backyward of their houses. In front yard usually they plant flowering spices i.e. Gulali, Mandara, Kanakamboram, Banthi etc. In back yard they raise fruit bearing species i.e. mango, jackfruit, citras, Jeelugu (Caryota) and apart from few vegetables including white pumpkin and wild pumpkin.
With an aesthetic sense the Jatapus keep their homes neat and clean, plaster the floor with cow dung (Avupeda) and decorate the home with black and red borders of earthen colours. They have good sense of hygiene a pit (Penta) with the radius of 3 meters and depth of 3-4 meters about 20-25 meters away from the home. They collect every day waste and dumped into then pit, every six months or some times once in a year, the waste decomposed and converted into compost. They use manure for their dry and wet land cultivation, which is an excellent indigenous practice among the Jatapus, the cattle sheds are constructed either adjacent to the dwelling houses or a little apart form them the hearth is divided into two or three parts to enable them to cook two or three items at a time. The fire wood of the dried three branches brought from the forest are not cut into small pieces, but are placed into the hearth straight away. The Jatapu house not only provides a merely resting place, it offers, facilitates and fulfils a variety of social, cultural and economic needs among the Jatapu. Their population of 1,26,659 according to (2011 census).